October 18, 2024

संवाददाता।
अयोध्या।
दिसंबर 1949 की 22/23 तारीख विक्रमी संवत 2006 के पौष माह के कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि। रात में हाड़ कंपा देने वाली ठंड थो। ठंड जितनी थी, रात भी उतनी बाली भी। इस रात को ही एक अंकुर फूट रहा था। मुक्ति के बीज का अंकुर। भगवान की जन्मभूमि के मुक्ति का बीन अंकुना रहा था। वह स्वप्न साकार होने जा रहा था जो हनुमान यही के संन्यासी नाना अभिराम दास को क्नै ने परेशान कर रहा था। वह स्वन या उमजन्मभूमि के संपर्ष एक निर्णायक मोड़ का। रामलला के मूर्तिमान प्राकट्य का स्वप्न आगी रात को में रामजन्मभूमि के गर्भगृह में साकार हो रहा था। इस प्राकट्य के प्रथम साक्षी बने एक विद्याविहीन साधु। अयोध्या नगरी मानचे इस प्राकट्य की प्रतीत कर रही थी। भारतान के प्राकट्य को जानकारी सुष्ट होने से पहले हो फूस के ढेर में लगी। चिंगारी की तरफ फैल गई। हजारों की संख्या में भगवान के दर्शन के लिए एकत्र होने लगे। तब न तो इतनी सुरका होती थी और न ही सुरक्षा की दृष्टि से उपाय होते थे। जबड़े की कंपकपाती सुचह में भी चौतरफा रामजन्मभूमि की तरफ चला हजारों का समूह का जन संगम में बदल गया। अयोध्या नगरी श्रीराम जयराम जय जय राम के मंत्र से गुंजायमान होने लगी। पटना की जानकारी ने प्रशासनिक अमले को अर्थधे में डाल दिया। इस मामले में अभी दूसरा प्रभु इच्छा से नियमित श्रीरामजन्मभूमि को परिक्रमा करने वाले इस साधु को एक प्रेरना हुई, यह आधी रात को चल पड़े जानकी जन्मस्थली की तरफ। उन्हें इस बात का भान भी नहीं था, वह भगवान के प्राकट्य के प्रथम गवाह चलने जा रहे हैं। बचरी डांचे में तब्दील भगजन की कमरथती पर ताला चंद था। वह परिक्रमा की इच्छा से इस दांचे में यही से प्रारंभ हुई रामइच्छा से कूद कर प्रवेश कर गए। बेखा चतरूप में भगवान नायक बनकर उभरे वाकुर गुरुदत्त सिंह और केके एक चैकों पर विराजमान है। इस अलोकिक दृश्य से नैवर अरिभूत साधु ने घंटानाद करते हुए भए प्रगट कृपला, दोन दयाला कर नायन शुरू कर दिया। आवेध्यनगरी नगर मे भगवद् प्रेरणा से लोग जाग गए और साधु समाज यह घंटानाद की दिशा में चद्म चला। कहकर लोगों को बनाया जाता है। हालाकि बाद में यह पं. स्र्वचार किया जाने लगा कि मूर्ति को वहां पर लाकर पंत रखा गया था। वह कुछ दिन पहले हो रामनगरी में सिटो मजिस्ट्रेट के पद पर तैनात हो कर आए थे। बतौर मजिस्ट्रेट उन्हें सारे प्रशासनिक फैसले लेने थे। घटना उनके लिए विस्मयकारी भी भी और दुविधा विषय भी। पटना की सूचना तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और मुख्यमंत्री गोविंदवल्लभ को प्रेषित की गई। पटना को प्रथम सूचना पते ही शासन का आदेश हुआ कि भोड़ को कैसे भो हटाया जाए और प्रकट होकर मूर्तिरूप में विराजमान राम लला को भी हटा दिया जाए। वहां कोई कुटान न हो सके। कभी प्रसनिक अधिकारी के लिए यह चुनौतीपूर्ण कार्य था। निहत्थी भीड़ को तितर-चितर करना आसान नहीं था। तब तो इतने संसाधन थे और न ही इतने संचार के माध्यम। वायरलेस, टेलीफोन और चेतार के तार के माध्यम से ही संचार संभव था। भक्ति भाव में पले-बड़े और भक्तिमागों सिटी मजिस्ट्रेट ठकुर गुरुदत्त सिंह ने आदेश को अनदेखी की। पाचनको दर्शन पूजन जारी रहने दिया। असली परीक्षा अच थी। सरकार में हड़कंप था। सरकार चाहती भी रामलला की प्रतिमा हटवा दी जाए। सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदल सिंह और तत्कालीन जिलाधिकारी केके नेपर दोनों इस चल पर एकमत हो शासन का फैसला हो, जब तक उनके हाथ में प्रशासन है, तब तक रामलला चभावत विराजमान रहेंगे। भक्त पूजन अर्चन करते रहेगे। सरकार की मंशा भक्तों पर भी उजागर हो चुकी थी। वे कड़कड़ाती ठंड में भजन-कीर्तन करते हुए अयोध्या धाम में जने हुए थे। उन्हें हटाना आखन नहीं था। इस घटना को पाकिस्तान रेडियो बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहा था। केंद्र का प्रदेश शासन पर दार इतना बढ़ा कि प्रदेश के मुख्यमंत्री गेविंद बल्तम पंत स्वयं अयोध्या आने के लिए निकल पड़े। उन्हें फैजाबाद की सीमा पर सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदत्त सिंह ने रोक लिया। सुरक्षा का हवाला देते हुए उन्होंने मुख्यमंत्री को आगे बढ़ने नहीं दिया। मुख्यमंत्री की चेतावनी भी उन पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकी। यह चेतावनी का मतलब जानते थे। वह जानते थे कि मुख्यमंत्री के लखनऊ पहुंचने तक ही वह अपने पद पर है। उनके जस समय नहीं है। उन्होंने भगवान को सेवा के लिए अपनी आजीविका बलिदान करने का निश्चय कर तत्काल दो आदेश चार मजिस्ट्रेट कर दिए। उन्होंने पूरे परिक्षेत्र में धारा 144 व 145 लागू कर दी ताकि दूसरे पक्ष का वहां कोई जुटान न हो सके। दूसरा आदेश पूजा-अर्चना विधिवत जारी रखने का किया। यह मामला अब न्यायिक प्रक्रिया के अधीन आ चुका था। मुस्लिम हक्लकर बरकत अली भी बना जिसे भगवान का दिव्य बल रूप देख कर बेहोशी छा गई। जब उठा तो भगवान दिव्य विग्रह के रूप में गर्भगृह में विराजमान हो चुके थे। भक्त एक थे और भगवन्नाम का संकीर्तन चल राय था। इस संगर्ष के मुख्य गुरुदत्त सिंह ने इन आदेशों के कुछ देर उपरांत सरकार को अपना त्यागपत्र भी भेज दिया। उनका यह त्याग हो कालांतर में फैसले के निर्मायक मुख्य आधारों में से एक रहा। उन्होंने अपनी आजीविका कर चलाकर को चुना। सरकार की नौकरी की जगह भगवान कसे चाकरी स्वीकार र की। उन्हें अपने बहस की कीमत भी पूरी पढ़ा जिलाधिकारी केके नैमर ने भी इन आदेशों को चरकरार रखा। इनके बाद विपक्ष के मुकदमे को देखते हुए 29 दिसंबर 1949 को विवादित क्षेत्र को धारा 145 के तहत कुर्क कर रिसीवर की नियुक्ति कर दी गई। केके नैयर को भी अपने इन निर्णयों के कारण अंततः नौकरी छोड़नी पड़ी। इन प्रशासनिक निर्णयो के दीर्घकालिक परिणाम एक सामान्य दोनो मुकदमे और विशिष्ट प्रकरण बनने तक में दृष्टिगोचर हुए।

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