आजादी की लड़ाई का पहला स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गंगू बाबा ने।
संवाददाता।
कानपुर। आज़ादी की इस लड़ाई में हजारों को पेड़ों पर फंदा डालकर फांसी पर चढ़ा दिया गया, कहा जाता है कि गंगू बाबा को भी घोड़े के पीछे बांधकर घसीटा गया। गंगू बाबा वो नाम है, जो स्वतंत्रता संग्राम के पन्नों में कहीं दर्ज नहीं हुआ। गंगू बाबा अपनी बहादुरी के चलते दिल्ली के अलकाजी संग्रहालय में नाना साहब पेशवा की सेना में भर्ती हुए थे। यह बात वरिष्ठ पत्रकार व इतिहास में रुचि रखने वाले अंजनी निगम ने बताई। गंगू बाबा में देश को स्वतंत्र कराने का जज्बा कूट-कूट कर भरा था। इसको देखकर ही नानाराव पेशवा ने गंगू बाबा को अपनी सेना में शामिल कर लिया था। गंगू बाबा पहलवानी के दांवपेंच में माहिर थे। गंगू बाबा का जन्म 1817 में हुआ था। गंगू बाबा के पूर्वज कानपुर देहात के अकबरपुर के रहने वाले थे। अकबरपुर में रहने से पहले उनका परिवार दिल्ली में रहता था और बादशाह अकबर द्वारा अकबरपुर गांव बसाए जाने पर यहां आ गया। अपनी पहचान बनाये रखने के लिए इनका परिवार अपने नाम के आगे दिल्लीवाल लिखने लगा। इनके परिवार के बख्तावर के तीन बेटे थे कलूट, संतलाल और गंगादीन उर्फ गंगू। इनका परिवार गांव के कुछ लोगो के व्यवहार से निराश होकर अलग अलग बट गया, कुछ लोग बिठूर रहने चले गए तो कुछ नगर के चुन्नीगंज में रहने चले गए। सत्तीचौरा में गंगू का एक अखाड़ा भी था। यहाँ पर गंगू नौजवानों को कुश्ती के दांवपेंच सिखाते थे। नाना साहब को नगाड़ा बजाने के लिए एक पहलवान की जरूरत थी तो उन्होंने यह जिम्मेदारी गंगू को दे दी। अपनी बहादुरी के चलते वह जल्द ही पेशवा की सेना में सूबेदार बन गए और फिर सूबेदार से कर्नल बनाए गए। नाना साहब की सेना में रहते हुए गंगू बाबा के अंदर देश को आजादी दिलाने के लिए जज्बा कूट-कूटकर भर चुका था। वर्ष 1857 में कलकत्ता में मनोज पांडेय ने कारतूस में गाय और सुअर की चर्बी को लेकर लड़ाई छेड़ दी। इसकी आग पूरे देश के साथ ही कानपुर तक भी पहुंची। वर्ष 1857 में ही नाना साहब की सेना ने मैस्कर घाट पर फिरंगियों ने मोर्चा संभाल लिया। इस संग्राम को ही आजादी की लड़ाई में पहला स्वतंत्रता संग्राम कहा गया।
इसका नेतृत्व गंगू बाबा ने किया। गंगू ने अपनी तलवार से घाट पर ही 150 फिरंगियों को सिर धड़ से अलग कर मौत के घाट उतार दिया। उस वक्त तक गंगू की उम्र करीब 42 वर्ष की थी। मैस्कर घाट में हुए संग्राम में बड़ी संख्या में फिरंगी मारे गए। गंगू बाबा फिरंगियों की नजर में आ गए। और फिर इस घटना से अंग्रेज सहम गए और गंगू को जिंदा या मुर्दा पकड़ने का आदेश दे दिया गया। गंगू को ढूंढने के लिए फिरंगियों ने 3 हजार से अधिक की सेना उतारी थी। पहले बिठूर में उनकी घेराबंदी की गई लेकिन वहां पर न मिलने पर अंग्रेजी फौज अखाड़े पर पहुंची जहां गंगू ने अंग्रेजों से जबरदस्त मोर्चा लिया। लेकिन, गंगू ने भागने की बजाय खुद को गिरफ्तार करा दिया। अंग्रेजी हुकूमत ने उनके ऊपर मुकदमा चलाया और जेल में उन्हें घोर यातनाएं दी गईं। उन्हें फांसी देने का हुक्म दिया गया। 5 जून 1858 को 42 साल के गंगू बाबा के साथ अंग्रेजों ने जुल्म की इंतिहा कर दी। घोड़ों के पीछे गंगू को बांध कर घसीटा गया। गंगू को बिठूर से घसीटते हुए कानपुर के चुन्नीगंज तक लाया गया। ये दूरी करीब 25 किमी. है। इसके पश्चात बेहाल हो चुके गंगू को चुन्नीगंज चौराहे के बीचों-बीच लगे नीम के पेड़ पर फांसी पर लटका दिया गया। इस वीर सेनानी ने अपनी अंतिम सांस तक अंग्रेजों को ललकारते हुए कहा था कि उन्हें भले ही फांसी दी जा रही है, लेकिन एक दिन यह देश आजाद हो कर रहेगा। इस स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की कहानी इतिहास के बेहद कम पन्नों की चंद लाइनों में दर्ज है। लेकिन उसकी शौर्य गाथा को उस बस्ती के लोग आज भी याद करते हैं जहां उन्हें फांसी दी गई थी। उनके नाम का पूरे कानपुर में सिर्फ सुदर्शन नगर बस्ती में उनकी मूर्ति लगी है। खुले आसमान के नीचे रोड किनारे पांच बाई पांच के चबूतरे पर उनकी मूर्ति लगी है। और एक बोर्ड पर उनके इतिहास के बारे में लिखा गया है। स्वतंत्रता के इस गुमनाम अमर सेनानी को प्रशासन और सरकार द्वारा स्वतंत्रता दिवस के मौके पर भी याद नहीं किया जाता है। पूरे नगर में सेनानियों की मूर्तियों का माल्यार्पण कर उनको सम्मान दिया जाता है। लेकिन, प्रशासन की तरफ से यहां न तो सफाई की जाती है और न ही उनको सम्मान देने के लिए कोई उपस्थित होता है। बस्ती के लोग ही सब कुछ करते हैं। यहाँ के बुजुर्ग बताते हैं कि बस्ती में पहले उनका परिवार रहता था, लेकिन फांसी दिए जाने के बाद गुमनामी में खो गया। बस्ती के लोगों में आज भी गंगू बाबा के प्रति बेहद सम्मान है। हर वर्ष 5 जून को उनकी याद में श्रद्धांजलि सभा के साथ आयोजन किया जाता है।