कानपुर। नगर सबसे घने इलाके घन्टाघर के समीप ही सुतरखाने क्षेत्र में स्थित एक लगभग 100 साल पुराना गणेश मन्दिर जो शहर के साथ ही आसपास के जिलों में सिद्धिविनायक भगवान के नाम से प्रसिद्ध है। यहां दर्शन मात्र से ही भक्तों का कल्याण सुनिश्चित माना जाता है। मान्यता है कि इस मन्दिर में लगातार 40 दिनों तक भगवान की अराधना करने के बाद भक्ति की हर मन्नत 40 घंटे के भीतर ही पूरी हो जाती है। मन्दिर में प्रत्येक बुधवार को भक्तों की भारी भीड उमडती है। यही नही गणेश महोत्सव के दौरान तो भक्तों की संख्या में खासा इजाफा भी हो जाता है। मराठों के सबसे बडे जननायक व आजादी के प्रणेता रहे बाल गंगाधर तिलक जब 1908 में कानपुर आए तब इस मन्दिर के संस्थापक के खेमचन्द्र गुप्ता ने उनके सामने गणेश मंदिर की स्थापना की बात कही। उस समय बाल गंगाधर ने अपनी व्यस्तता को लेकर अगली बार आकर भूमि पूजन करने के साथ गणेश जी की प्रतिमा की स्थापना करने की बात कही थी।
बाल गंगाधर तिलक को कानपुर आने में करीब तेरह साल लग गए और इनकी बाबा की जिद थी कि भूमि पूजन के साथ गणेश जी की प्रतिमा की स्थापना वो उन्ही से करवाएंगे।1921 में बाल गंगाधर तिलक ने बाबा के आग्रह पर भूमि पूजन तो किया लेकिन वह मूर्ति स्थापित कराने के लिए रुक नही पाए थे। क्योकि पूजन के बाद किसी आवश्यक कार्य से मुम्बई वापस जाना पड़ा था। बताते चलें कि घंटाघर इलाके सुतरखाने में मौजूद गणेश मंदिर पूरे यूपी का ऐसा इकलौता मंदिर है जिसका स्वरुप एक तीन खंड के मकान जैसा है। इसके साथ ही यहां भगवान गणेश के 8 स्वरूप एक साथ विराजमान है। 1921 में निर्माणाधीन मन्दिर के जीर्णोद्धार के लिए ट्रस्टियों ने साल 2000 से कार्य शुरु करवाया जिसमें 7 साल से अधिक का समय लगा जिसमें भगवान के कई स्वरूपों का चित्रण मूर्तियों के माध्यम से बखूबी किया गया है। बतातें हैं कि यहां भगवान गणेश का मंदिर बनने के दौरान अंग्रेजों ने रोक लगा दी थी क्योकि इस मंदिर के 50 मीटर की परिधि में एक मस्जिद मौजूद था। जिस पर अंग्रेज अधिकारियों का तर्क था कि मस्जिद और मंदिर एक साथ नहीं बन सकते। ऐसे में यहां मंदिर बनवाने के बजाय 3 खंड का मकान बनवाकर भगवान गणेश को स्थापित किया गया था। मंदिर के मुख्य ट्रस्टी् खेमचन्द्र गुप्त के परिजनों में से एक ने बताया कि उनके पूर्वजों के सदस्यों और महाराष्ट्र के व्यापारियों से व्यापारिक रिश्ते थे ज्यादातर व्यापार के सिलसिले में गणेश उत्सव के समय कानपुर आना जाना लगा रहता था और इस दौरान सभी इस मन्दिर में पूजन किया करते थे।
इन लोगों की भगवान गणेश में अटूट आस्था थी और वो भी उस समय गणेश महोत्सव के समय घर में ही भगवान गणेश के प्रतिमा की स्थापना कर पूजन करते थे और आखिरी दिन बड़े ही धूमधाम से विसर्जन करते थे।
उनदिनों पूरे कानपुर में यहां अकेले गणेश उत्सव मनाया जाता था। इनकी भक्ति को देख इनके महाराष्ट्र दोस्तों ने उस खाली प्लाट में भगवान गणेश की प्रतिमा को स्थापित कर वहा मंदिर बनवाने का सुझाव दिया था।
बाबा रामचरण के पास एक 90 स्क्वायर फिट का प्लाट घर के बगल में खाली पड़ा था। जहां इन्होंने मंदिर निर्माण करवाने के लिए 1908 में नींव रखी थी।
जब अंग्रेज सैनिको को यहां मंदिर निर्माण और गणेश जी की मूर्ति के स्थापना की जानकारी मिली तो उन्होंने मंदिर निर्माण पर रोक लगा दी थी। अंग्रेज अधिकारियों ने इसके पीछे तर्क दिया कि पास में मस्जिद होने के कारण यहां मंदिर नहीं बनवाया जा सकता है। क्योंकि कानून के मुताबिक़ किसी भी मस्जिद से 100 मीटर के दायरे में किसी भी मंदिर का निर्माण नहीं किया जा सकता।
अंग्रेज अधिकारियों के मना करने के बाद रामचरण वैश्य ने कानपुर में मौजूद अंग्रेज शासक से मुलाक़ात की मगर बात नहीं बनी। इसकी जानकारी बाल गंगाधर तिलक को हुई तब उन्होंने दिल्ली में अंग्रेज के बड़े अधिकारी से मिले और मंदिर स्थापना के साथ मूर्ति स्थापना की बात कही थी।
इसपर दिल्ली से 4 अंग्रेज अधिकारी कानपुर आए और स्थिति का जायजा लिया था। अंग्रेज अधिकारी ने वहां गणेश प्रतिमा की स्थापना करने की अनुमति तो दी मगर इस प्लॉट पर मंदिर निर्माण की जगह दो मंजिला घर बनावाने की बात कही। ऊपरी खंड पर भगवान गणेश की मूर्ति स्थापित करने को कहा।
जिसके बाद यहां 2 मंजिला घर बनाया गया और पहले तल पर भगवान गणेश की प्रतिमा को रामचरण गुप्त ने स्थापित किया। इस 3 मंजिल खंड में निचे वाले खंड पर ऑफिस और आने वाले श्रद्धालुओं के जूते चप्पल रखने का स्थान दिया गया।