संवाददाता।
कानपुर। परम पूज्य सन्त प्रेमानन्द गोविन्द शरण जी महाराज का जन्म कानपुर जनपद के नरवल तहसील के अखरी गांव में हुआ था। पूज्य सन्त प्रेमानन्द जी के बड़े भाई गणेश दत्त पाण्डे ने बताया कि उनके पिता शंभू नारायण पाण्डे के 3 पुत्र हैं, जिसमें प्रेमानन्द जी महाराज मंझिले है। उनके बचपन का नाम अनिरुद्ध कुमार पाण्डे है। उन्होंने बताया कि पिताजी पुरोहित का काम करते थे तथा उनके घर पर हर पीढ़ी में कोई न कोई एक बड़ा साधु-सन्त होकर निकलता है। पीढ़ी दर पीढ़ी अध्यात्म की ओर अधिक जुड़ाव होने के चलते प्रेमानन्द महाराज भी बचपन से ही आध्यात्मिक रहे हैं। बड़े भाई गणेश दत्त पाण्डे ने बताया कि बचपन में पूरा परिवार रोजाना एक साथ बैठकर पूजा पाठ किया करता था। जिसमें यह बालक भी बड़े ध्यान से सभी विधियों को देखा व सुना करता था। इसी दौरान जब वह कक्षा चार में पढ़ रहा था। तब मुझसे स्कंद पुराण सुनाने को कहा, जिसके बाद स्कंद पुराण में कपिल देव महाराज की सांख्य योग का ज्ञान मेरे द्वारा सुनाया गया। उसी क्षण से उस बालक के अन्दर अध्यात्म का जन्म होने लगा और रोजाना अपना पूरा समय पूजा पाठ में व्यतीत करने लगा। एक बार की बात है जब सन्त श्री अपने बचपन के मित्र रजोल सिंह तथा छुटकउ यादव के साथ गांव के बाहर बैठे हुए थे, तभी तीनों बाल सखाओं ने गांव के अंदर बने शंकर जी के चबूतरे को बनवाने के लिए सोचा और उसके लिए सभी से 5-5 रुपए एकत्रित किए। शंकर जी के चबूतरे का निर्माण शुरू करवाया, लेकिन अराजकतत्वों द्वारा रोक लगा दी गई। जिससे व्यथित होकर महाराज जी ने घर छोड़ने का मन बनाया और देर रात्रि रोजाना की भांति घर की छत पर बने एक कच्चे कमरे में जाकर सो गए। दूसरे दिन जब बड़े भाई द्वारा आवाज लगाकर जगाने का प्रयास किया गया तो कोई जवाब नहीं आया ऊपर जाकर देखा तो सन्त श्री कमरे से गायब थे। काफी खोजबीन के बाद जानकारी हुई कि वह सरसौल स्थित नन्देश्वर मन्दिर में रुके हुए हैं। परिजनों के लाख समझाने बुझाने के बाद भी वह घर वापस नहीं लौटे और माया मोह के चलते सरसौल से भी चले गए।परिजनों ने बताया कि महाराज जी ने कक्षा 8 तक की पढ़ाई नरवल के जूनियर हाई स्कूल से की है। कक्षा 9 में भास्करानंद विद्यालय में दाखिला लेने के बाद 4 से 5 महीने ही विद्यालय गए थे। इसके बाद वह भगवान की भक्त्ति में लीन हो गए। सरसौल नन्देश्वर मन्दिर से जाने के बाद वह महाराजपुर के सैमसी स्थित एक मन्दिर में कुछ दिनों तक रुके। फिर वहां से वह कानपुर के बिठूर में रहे, बिठूर के बाद वह काशी विश्वनाथ चले गए। जहां पर लगभग 15 वर्ष व्यतीत किया। काशी के बाद अपने गुरु गौरी शरण जी महाराज से गुरु दीक्षा लेकर वह राधा बल्लभ पन्त के अनुयाई होकर वृंदावन धाम में चले गए। जहां पर आज उनके दर्शनों के लिए वीवीआईपी, राजनेताओं से लगाकर देश के कोने-कोने से भक्त्त वृंदावन पहुंचते है।