जग में देखे रत्न बहुत, देश रत्नों की खान
धरा पर पर्वत बहुत, ब्रज में बसे गिरिराज,
भक्ति मुक्ति अनुरक्ति का है यहाँ भंडार
पत्थर पूजे हरी मिले, पूज लो ये पर्वतराज।
सात कोस की परिक्रमा, छोटा ये पहाड़
ब्रज की रक्षा ये करे बनके ब्रज की बाड़,
कृष्ण लीला का साक्षी अनुपम ये गिरिराज
ब्रज की धरती का रत्न है, गोवर्धन महाराज।
पुलत्स्य ऋषि लेकर चले ब्रज में दिया बैठाये
जब काशी को वो चले, तो पर्वत गया जमाये,
तिल तिल कर मैं घटूँगा तब मुझे लेकर जाना
कलयुग के पापों में मेरा रूप लुप्त हो जाए।
कृष्ण उठाए उठ गया, इन्द्र मान तब टूटा
श्याम रूप में देख के, भूला इन्द्र शत्रुता,
सात दिन गिरि धर लिए, आठ पहर उपवास
छप्पन भोग अब लगाते, अन्नकूट है ख़ास।
गोवर्धन परिक्रमा में, चढ़ते दूध और फूल
लोटकर चक्कर लगाते, लेके ब्रज की धूल,
मानस देव मुनि पूजते, गोवर्धन की महिमा
गोपी, गोप गाय पूजें, श्रद्धा तुझमे अतुल।
– संजीव कुमार भटनागर