भूपेंद्र सिंह
कानपुर। शहर के बाजार इस समय एक से बढ़कर एक डिजाइनर लाइटों, झालरों और इलेक्ट्रानिक आइटमों से पूरी तरह से सजे हुए हैं। ये आइटम बदलते वक्त और उसकी बयार के चलते भले ही प्राचीन रीति-रिवाजों को पीछे छोड़ने पर आमादा हो लेकिन आज भी माटी के एक दीपक की जलती लौ के आगे सारे इलेक्ट्रानिक उपकरणों की चकाचौंध फीकी ही हो जाती है। बस एक सप्ताह के भीतर ही शहर के हर छोटे-बड़े घरों के बाहर लटकती रंग-बिरंगी लाइटों की झालरें उसकी आभा में चार-चांद लगाने को तैयार है। लेकिन माटी के दीपक के मुकाबले के आगे ये ठहर सकेंगी यह कहना थोडी अतिश्योक्ति होगी । दीपों के त्यौहार में जब कतारबद्ध जलते दीयों की महफिल सजती है तो दिव्यलोक का एहसास होता है। सभ्यता के उद्धम को विकास की पटरी पर सरपट दौड़ाने वाले कुम्हार की चाक की परंपरा की मशाल को प्रज्ज्वलित किए सरपट घूम रहा है। दीपावली को जगमग करने वाली परंपरागत मिट्टी के दीयों की मांग आज भी उतनी ही बरकरार है जितनी इन झालरों और सजावटी आइटमो के आने से पहले हुआ करती थी। मिट्टी के दीपक का विश्व में आज भी प्रभावशाली महत्व है। मिट्टी का दीया पांच तत्वों से मिलकर बनता है जिनसे ही उनका निर्माण कुम्हार के हाथों द्वारा होता है। पानी, आग, मिट्टी, हवा तथा आकाश तत्व ही मनुष्य व मिट्टी के दिए में मौजूद होते हैं। इस दीये का दीपक जलाने से ही समस्त अनुष्ठान कर्म आदि होते हैं। दीपावली के शुभ अवसर पर मिट्टी के दीयों का ही अत्यंत महत्व है। वास्तु शास्त्र में इसका महत्व इस बात से है कि यदि घर में अखंड दीपक की व्यवस्था की जाए तो वास्तु दोष समाप्त होता है। दीपावली के अवसर पर धन-धान्य की देवी माता लक्ष्मी के पूजन की परंपरा रही है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार माटी के दीपक में सरसों को तेल डालकर देवी का पूजन किया जाता है। यह दीपक पूरी रात जलाए रखा जाता है ताकि रात्रि में दीये की रोशनी में देवी के आगमन का मार्ग प्रशस्त रहे। काकादेव स्थित कुम्हार मण्डी में रहने वाले कारीगर बडी ही उत्सुकता से दीपावली पर्व का इन्तजार करते हैं। इस वर्ष बढ़ती महंगाई और दीए की जगह बिजली से जगमगाने वाले झालरों और बल्बों का वर्चस्व होने की वजह से खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं फिर भी दीवाली की नजदीकी को देखते हुए कुम्हार दीया बनाने में व्यस्त हैं। इस पुरातन परंपरा के जीवित रहने के कारण ही कुम्हारों के आंगन में परंपरागत रूप चाक पर दीया का निर्माण होता है। कुम्हार की चाक पर तीन पीढियों वाले पुश्तैनी काम कर रहे जितेंद्र प्रजापति बताते हैं कि देशहित और जागरूकता के कारण इस वर्ष चाइनीज झालर के साथ ही मिट्टी के दीयों की मांग भी उतनी ही तेज है। उन्होंहने बताया कि उनका परिवार केवल दीपावली के लिए ही लगभग बीस हजार दीए बनाते हैं जो पर्व के पहले ही बिक जाते हैं। हालांकि कोयले की कीमत व दीया बनाने युक्त मिट्टी की कीमत बढ़ जाने से थोड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। अभी थोक में दीए 80 से 90 रुपए प्रति सैकड़ा की दर से दिए बेचे जा रहे हैं।वहीं दूसरे कुम्हार अभिषेक कुमार के अनुसार आने वाले एक दो दिनों में मिटटी के दीयों के भाव बढकर 100 रुपए सैकडा के पार भी सकते हैं । दीयों के खरीदार अंकित गुप्ता ने बताया कि घरों में बिजली के कितने भी उपकरणों का प्रयोग कर लिया जाए पर दीपावली में कतारबद्ध दीयों की लौ के आगे सब फीके ही हो जाते हैं और यह दिव्यलोक का अहसास भी करा जाते हैं।