
आ स. संवाददाता
कानपुर। वर्ष 1998 में चमनगंज व रायपुरवा में हुए दंगों में 45 लोगों को कोर्ट ने बरी कर दिया। दंगाई का कलंक, समाज की शंका भरी नजरें, सजा होने की दहशत में 27 साल गुजर गए। इंसाफ मिलने के बाद दिल से बड़ा बोझ उतरा तो पता चला कि इस दंगे ने उनके जीवन का बहुत कुछ छीन लिया।
दोष मुक्त करार दिए गए लोगों में 51 साल की उम्र में पांच बच्चों व पत्नी को छोड़ कर जेल गए रशीद आलम की उम्र आज 78 साल है। रशीद दंगे से पहले मूलगंज स्थित चप्पल के कारखाने में काम करते थे। जेल जाने के बाद मानों उनकी जिंदगी में भूचाल सा आ गया।
उन्होंने 9 जनवरी की वह काली रात याद करते हुए कहा कि उस समय रमजान का महीना चल रहा था, शाम को कारखाने से लौटने के बाद वह नमाज अदा करने गए। इसके बाद खाना खाकर पत्नी, बच्चों संग सो गए। रात 2 बजे दरवाजा खटका, उन्होंने दरवाजा खोला तो बाहर पुलिस थी। बिना पूछताछ किए पुलिसकर्मी उन्हें डंडे मारते हुए ले गए और अगले दिन जेल भेज दिया।
इसी तरह डिप्टी पड़ाव निवासी एहसान अहमद ने बताया कि उनके कुछ दोस्त सऊदी अरब में नौकरी करते थे। सऊदी अरब जाकर नौकरी करने की चाहत में उन्होंने अपना पासपोर्ट बनवाया था। कुछ दिनों बाद वह जाने वाले थे, तभी यह घटना हो गई। जिसके बाद उनके पूरे जीवन में उथल पुथल हो गई। 9 जनवरी की रात पुलिस आई और घर से घसीटते हुए ले गई।
दंगा, एसपी साउथ के गनर की हत्या जैसे गंभीर आरोपों से लड़ते लड़ते पिता अब्दुल गनी व मां मकसूदन की 15 साल पहले मौत हो गई। उन्होंने जेल से छूटने के बाद प्राइवेट गाड़ी चलाकर गुजारा किया। 2002 में शादी हुई और उनकी पांच बेटियां है। एहसान ने बताया कि जीवन के 27 साल दहशत में गुजरें है। हर महीने मुकदमे में 4 से 5 तारीखों में कोर्ट में जाना पड़ता था। हर तारीख में पत्नी व बेटियों के चेहरों पर दहशत दिखती थी, कि कही उनके पिता को सजा न हो जाए।
डिप्टी पड़ाव में रहने वाले मेराज खान भी इसी दंश को झेल रहा है। मेराज के चेहरे पर उनके हक में फैसला आने की तो खुशी थी, लेकिन चेहरे पर बच्चों को शिक्षित न कर पाने का मलाल भी था। मेराज ने कहा कि उनके दो बेटे व दो बेटियां हैं। वह भारत पेट्रोलियम में टैंकर चला कर परिवार का गुजारा करते थे। जेल जाने के बाद लंबे समय तक नौकरी नहीं मिली। जमानत पर छूटने के बाद 3 से 4 महीने बाद घर में समन आया तब उन्हें जानकारी मिली कि उन्हें दंगे का आरोपी बनाया गया है। इसके बाद उनकी आधी जिंदगी कोर्ट के चक्कर लगाते लगाते बीत गई। इन सब उलझनों में आर्थिक संकट आकर खड़ा हो गया, जिससे बच्चों की पढ़ाई भी प्रभावित हो गई।
मेराज ने बताया कि वह सिर्फ बड़ी बेटी को बीएससी तक की पढ़ाई करा सके, बाकी तीनों बच्चे शिक्षा से वंचित रह गए। मेराज ने बताया कि इन सब तनावों के कारण बीते एक जनवरी को उनको हार्ट अटैक भी आया था। रुंधे गले से उन्होंने कहा कि अगर ये सब न होता तो वह बच्चों को शिक्षित कर चुके होते और आज बेटियों की शादी भी हो गई होती।
दंगे में अतीकुर्रहमान व उनका भाई मतीउल्लाह भी जेल गया था। मतीउल्लाह ने बताया कि पिता बाबू खान लोहे की चिमनी कारीगर थे। जेल जाने के बाद सारा पैसा पैरवी में खर्च हो गया, इस दौरान पिता की मौत हो गई। जेल से छूटने के बाद जो कुछ भी कमाया सब पैरवी में खर्च हो गया। इस कारण उनकी शादी भी नहीं हो सकी और अब वह भाई के साथ किराए के मकान में रहते है।
इन चारों के अधिवक्ता शकील अहमद बुंदेला ने बताया कि मामले में पुलिस कोई भी स्वतंत्र साक्षी, प्रत्यक्षदर्शी गवाह पेश नहीं कर सकी। साथ ही पुलिस यह भी स्पष्ट नहीं कर सकी कि गोली किस असलहे से मारी गई। पुलिस ने गोली भी कोर्ट में पेश नहीं की। इन सब आधारों पर आरोपियों को बरी किया गया।