
संवाददाता
कानपुर। उत्तर प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन (यूपीसीए) में पिछले दिनों एक व्यापक बदलाव देखा गया है जिसमें पूर्व सचिव राजीव शुक्ला के करीबियों ने प्रमुख पदों पर कब्जा कर लिया है। 30 अक्टूबर को होने वाली संघ की एजीएम और चुनाव इस बार मात्र औपचारिकता भर रह गई है। संघ में इस बार पूर्व सचिव राजीव शुक्ला के बाल सखा प्रेम मनोहर गुप्ता सचिव का पद संभालेंगे जबकि उनका भतीजा सचिन आनन्द शुक्ला कोषाध्यक्ष बनने को पूरी तरह तैयार हैं, यही नहीं प्रदेश संघ की गवर्निंग काउंसिल के चेयरमैन को भी उनकी नजदीकी का फायदा मिला। संजय कपूर और संजीव सिंह इसके प्रमाण हैं । इस बदलाव ने न सिर्फ एसोसिएशन की सत्ता संरचना को प्रभावित किया है बल्कि उनके करीबियों की बढ़ती पहुँच को भी स्पष्ट कर दिया है। जबकि देखा जाए तो बीते कई दशकों से जुड़े कई पुराने सदस्यों को संघ के भीतर अहम पदों तक पहुंचने से वंचित रखा गया।
सूत्रों के अनुसार, यूपीसीए की आंतरिक राजनीति में धीरे-धीरे पूर्व सचिव राजीव शुक्ला के “महज निर्देश” वाली रणनीति काम कर रही थी, जिसमें उनके समर्थक-दोस्त धीरे-धीरे निर्णय-प्रक्रिया में प्रभावी बन गए हैं । इससे ऐसा लगा कि अब यूपीसीए की नीतियों और नियुक्तियों में “शुक्ला गुट” का वर्चस्व बढ़ गया है।
यूपीसीए के भीतर सदस्यों, आजीवन सदस्यों और जिला संघों के बीच तेजी से समीकरण बदल रहे हैं। यूपीसीए के भीतर झांकने में यह सामने आया है कि आजीवन सदस्य के रूप में ऐसे नामों को शामिल किया गया है जिनका संबंध शुक्ला खेमे में करीब से रहा है या जिन्होंने उनकी रणनीतियों का समर्थन किया है। उदाहरण के लिए, इलाहाबाद हाई कोर्ट में दाखिल याचिका में यह जानकारी दी गई है कि शुक्ला के भाई तथा उनका भतीजा संघ में बिना शुल्क अदायगी के आजीवन सदस्य बैठे थे ।
उप्र क्रिकेट की राजनीति में कहा जा रहा है कि इस तरह की नियुक्तियों से “सत्ता का नेटवर्क” मजबूत होता जा रहा है, न कि योग्यता के आधार पर किसी की नियुक्ति।पूर्व सचिव के रूप में राजीव शुक्ला ने लम्बे समय से यूपीसीए में सक्रिय भूमिका निभाई है। उनके कार्यकाल और इसके बाद बनाए गए सम्बन्धों ने उन्हें एसोसिएशन के अंदर “स्मार्ट केंद्र” बनाया। 2019 के एक दस्तावेज़ के अनुसार, शुक्ला ने लंबे वक्त तक यूपीसीए के निदेशक एवं अन्य पदों पर कार्य किया, जिससे उनका प्रभाव-प्रसार कई स्तरों तक फैला।
इसका परिणाम यह हुआ कि निर्णय-प्रक्रिया में उनके समर्थकों की हिस्सेदारी बढ़ी और नए नियुक्तियों तथा चुनौतियों में उनकी राय प्रमुख मानी जाने लगी। यूपीसीए के संविधान में बदलाव के बाद भी यह व्यवस्था बनी हुई है। इससे यह साफ दिखता है कि संघ में वास्तविक नियंत्रण सिर्फ पदाधिकारियों तक सीमित नहीं रहा बल्कि समर्थकों के नेटवर्क के माध्यम से व्याप्त हुआ है।
इसके अलावा, यह भी देखा गया है कि पिछले वर्षों में यूपीसीए पर भ्रष्टाचार और जल्दीबाजी वाली नियुक्तियों के आरोप लगे थे ,जैसे कि चयन में रिश्वत लेने की कथित घटना। इस तरह के माहौल में “गुटबाजी” को प्राथमिकता मिलने से, क्रिकेट व्यवस्था पर भरोसा कम हो सकता है।यदि इस प्रकार सत्ताधारी गुटों का विस्तार जारी रहा तो यूपीसीए की लोकतांत्रिक व्यवस्था, चयन-प्रक्रिया की पारदर्शिता और खिलाड़ियों की गरिमा को जोखिम हो सकता है। दूसरी ओर, यह बदलाव शुक्ला समर्थक खेमे को एवं अधिक मजबूती देता माना जा रहा है, जिससे आगामी चुनाव, प्रशासनिक रूपरेखा और संसाधन वितरण में उनका वर्चस्व बढ़ सकता है। यह देखने योग्य होगा कि यूपीसीए आनेवाले एजीएम या चुनावों में इस प्रभाव-प्रवाह का कितना प्रतिफल मिलता है।




